सूरा-ए-यूसुफ़ | ||
12 | शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा रहमान और रहीम है। | |
12 | 1 | अलिफ़ लाम रा - ये किताब-ए-मुबीन की आयतें हैं |
12 | 2 | हमने इसे अरबी (में) कु़़रआन बनाकर नाजि़ल किया है कि शायद तुम लोगों को अक़्ल आ जाये |
12 | 3 | पैग़म्बर हम आपके सामने एक बेहतरीन कि़स्सा बयान कर रहे हैं जिसकी वही (आसमानी हुक्म) इस कु़रआन के ज़रिये आपकी तरफ़ की गई है अगरचे इससे पहले आप इसकी तरफ़ से बेख़बर लोगों मंे थे |
12 | 4 | उस वक़्त को याद करो जब यूसुफ़ ने अपने वालिद से कहा कि बाबा मैंने ख़्वाब (सपना) में ग्यारह सितारों और आफ़ताब (सूरज) व महताब (चाॅंद) को देखा है और ये देखा है कि ये सब (के सब) मेरे सामने सजदा कर रहे हैं |
12 | 5 | याकू़ब ने कहा कि बेटा ख़बरदार अपना ख़्वाब (सपना) अपने भाईयों से बयान न करना कि वह लोग उलटी-सीधी तदबीरों (कोशिशों) में लग जायेंगे कि शैतान इन्सान का बड़ा खुला हुआ दुश्मन है |
12 | 6 | और इसी तरह तुम्हारा परवरदिगार तुम्हें मुन्तख़ब (छाॅंट लेगा) करेगा और तुम्हें बातों की तावील (वज़ाहत) सिखायेगा और तुम पर और याकू़ब की दूसरी औलाद पर अपनी नेअमत को तमाम (पूरा) करेगा जिस तरह तुम्हारे दादा परदादा इब्राहीम और इसहाक़ पर तमाम कर चुका है बेशक तुम्हारा परवरदिगार बड़ा जानने वाला और साहेबे हिकमत है |
12 | 7 | यक़ीनन यूसुफ़ और उनके भाईयों के वाक़ेया में सवाल करने (पूछने) वालों के लिए बड़ी निशानियाँ पायी जाती हैं |
12 | 8 | जब इन लोगों ने कहा कि युसूफ़ और इनके भाई (इब्ने यामीन) हमारे बाप की निगाह में ज़्यादा महबूब हैं हालांकि हमारी एक बड़ी जमाअत (गिरोह) है यक़ीनन हमारे माँ-बाप एक खुली हुई गुमराही (ग़लत राह) में मुब्तिला हैं |
12 | 9 | तुम लोग यूसुफ़ को क़त्ल कर दो या किसी ज़मीन में फेंक दो तो बाप का रूख़ तुम्हारी ही तरफ़ हो जायेगा और तुम सब इनके बाद सालेह (नेक अमल करने वाले) क़ौम बन जाओगे |
12 | 10 | इनमें से एक शख़्स ने कहा कि यूसुफ़ को क़त्ल न करो बल्कि किसी अँधे (गहरे) कुँए मंे डाल दो ताकि कोई क़ाफि़ला उठा ले जाये अगर तुम कुछ करना ही चाहते हो |
12 | 11 | इन लोगों ने याकू़ब से कहा कि बाबा क्या बात है कि आप यूसुफ़ के बारे में हम पर भरोसा नहीं करते हैं हालांकि हम उन पर शफ़क़त (मेहरबानी) करने वाले हैं |
12 | 12 | कल हमारे साथ भेज दीजिए कुछ खाये-पिये और खेलें और हम तो उसकी हिफ़ाज़त करने वाले मौजूद ही हैं |
12 | 13 | याकू़ब ने कहा कि मुझे उसका ले जाना तकलीफ़ पहुँचाता है और मैं डरता हूँ कि कहीं उसे भेडि़या न खा जाये और तुम ग़ाफि़ल (भूले हुए, बेपरवाह) ही रह जाओ |
12 | 14 | और इन लोगों ने कहा कि अगर उसे भेडि़या खा गया और हम सब उसके भाई हैं तो हम बड़े ख़सारा (नुक़सान, घाटे) वालों में हो जायेंगे |
12 | 15 | इसके बाद जब वह सब यूसुफ़ को ले गये और ये तय कर लिया कि उन्हें अँधे कुँए (गहरे कुॅए) में डाल दें और हमने यूसुफ़ की तरफ़ वही कर दी कि (घबराओ नहीं) अनक़रीब (बहुत जल्द) तुम इनको (इनकी) इस साजि़श (के बुरे अमल) से बाख़बर करोगे और उन्हें ख़्याल भी न होगा |
12 | 16 | और वह लोग रात के वक़्त बाप के पास रोते-पीटते आये |
12 | 17 | कहने लगे बाबा हम दौड़ लगाने चले गये और यूसुफ़ को अपने सामान के पास छोड़ दिया तो एक भेडि़या आकर उन्हंे खा गया और आप हमारी बात का यक़ीन न करेंगे चाहे हम कितने ही सच्चे क्यों न हों |
12 | 18 | और यूसुफ़ के कुर्ते पर झूठा ख़ून लगाकर ले आये। याकू़ब ने कहा कि ये बात सिर्फ़ तुम्हारे दिल ने गढ़ी है लेहाज़ा मेरा रास्ता सब्रे जमील (अपनी तकलीफ़ सिर्फ ख़ुदा से बयान करने) का है और अल्लाह तुम्हारे बयान के मुक़ाबले में मेरा मददगार है |
12 | 19 | और वहाँ एक क़ाफि़ला आया जिसके पानी निकालने वाले ने अपना डोल कुँए में डाला तो आवाज़ दी अरे वाह ये तो बच्चा है और इसे एक क़ीमती सरमाया (माल) समझकर छिपा लिया और अल्लाह इनके आमाल से ख़ूब बा-ख़बर है |
12 | 20 | और इन लोगों ने यूसुफ़ को मामूली क़ीमत पर बेच डाला चन्द दरहम (कुछ सिक्कों) के एवज़ (बदले) और वह लोग तो इनसे बेज़ार (नफ़रत में) थे ही |
12 | 21 | और मिस्र के जिस शख़्स ने इन्हें ख़रीदा था उसने अपनी बीवी से कहा कि इसे इज़्ज़त व एहतराम के साथ रखो शायद ये हमें कोई फ़ायदा पहुँचाये या हम इसे अपना फ़रज़न्द (बेटा) बना लें और इस तरह हमने यूसुफ़ को ज़मीन में इक़तेदार (हुकूमत) दिया और ताकि इस तरह उन्हें ख़्वाबों (सपनों) की ताबीर का इल्म का सिखायें-और अल्लाह अपने काम पर ग़ल्बा (जीत) रखने वाला है ये और बात है कि अकसर लोगों को इसका इल्म नहीं है |
12 | 22 | और जब यूसुफ़ अपनी जवानी की उम्र को पहुँचे तो हमने उन्हें हुक्म (नुबूवत, फ़ैसला) और इल्म अता कर दिया कि हम इसी तरह नेक अमल करने वालों को जज़ा (सिला) दिया करते हैं |
12 | 23 | और उसने (ज़्ाुलेख़ा ने) इनसे इज़्हारे मोहब्बत किया जिसके घर में यूसुफ़ रहते थे और (बुरी नीयत से) दरवाजे़ बन्द कर दिये और (अपने नाजायज़ मतलब हासिल करने के लिये) कहने लगी लो आओ यूसुफ़ ने कहा कि माज़ अल्लाह वह मेरा मालिक है उसने मुझे अच्छी तरह रखा है और ज़्ाुल्म करने वाले कभी कामयाब नहीं होते |
12 | 24 | और यक़ीनन इस औरत ने उनसे बुराई का इरादा किया और वह भी इरादा कर बैठते अगर अपने रब की दलील न देख लेते ये तो हमने इस तरह का इन्तिज़ाम किया कि उनसे बुराई और बदकारी (बुरे काम) का रूख़ मोड़ दें कि वह हमारे मुख़लिस (नेक आदमी) बन्दांे में से थे |
12 | 25 | और दोनों ने दरवाजे़ की तरफ़ सब्क़त (पहल) की और उसने इनका कुर्ता पीछे से फाड़ दिया और दोनों ने उसके सरदार को दरवाज़े ही पर देख लिया। उसने (ज़ुलेख़ा ने) घबराकर (अपने शौहर से मक्कारी में) फ़रियाद की कि जो तुम्हारी औरत के साथ बुराई का इरादा करे उसकी सज़ा उसके अलावा क्या है कि उसे क़ैदी बना दिया जाये या उस पर दर्दनाक अज़ाब किया जाये |
12 | 26 | यूसुफ़ ने कहा कि उसने ख़ुद मुझसे इज़्हारे मोहब्बत किया है और इस पर उसके घर वालों मंे से एक गवाह ने गवाही भी दे दी कि अगर इनका दामन सामने से फटा है तो वह सच्ची है और ये झूठों में से है |
12 | 27 | और अगर इनका कुर्ता पीछे से फटा है तो वह झूठी है और ये सच्चों में से हैं |
12 | 28 | फिर जो देखा कि इनका कुर्ता पीछे से फटा है तो उसने कहा कि ये तुम औरतों की मक्कारी है तुम्हारा मक्र (झूठ-फ़रेब) बहुत अज़ीम (बड़ा) होता है |
12 | 29 | यूसुफ़ अब तुम इससे आराज़ (दूर रहो) करो और ज़्ाुलैख़ा तू अपने गुनाह के लिए अस्तग़फ़ार (माफ़ी माॅगना) कर कि तू ख़ताकारों में है |
12 | 30 | और फिर शहर की औरतों ने कहना शुरू कर दिया कि अज़ीजे़ मिस्र की औरत अपने जवान को अपनी तरफ़ खींच रही थी और उसे उसकी मोहब्बत ने मदहोश (दीवाना) बना दिया था हम ये देख रहे हैं कि ये औरत बिल्कुल ही खुली हुई गुमराही में है |
12 | 31 | फिर जब ज़्ाुलैख़ा ने इन औरतों की मक्कारी और तशहीर (ताने) का हाल सुना तो बुला भेजा और उनके लिए पुर-तकल्लुफ़ दावत का इन्तिज़ाम करके (बैठने के लिये) मसनद लगा दी और सबको एक-एक छुरी दे दी और यूसुफ़ से कहा कि तुम इनके सामने से निकल जाओ फिर जैसे ही इन लोगों ने देखा तो बड़ा हसीन व जमील (बहुत ख़ूबसूरत) पाया और अपने हाथ काट डाले और कहा कि माशा अल्लाह ये तो आदमी नहीं है बल्कि कोई मोहतरम फ़रिश्ता है |
12 | 32 | ज़्ाुलैख़ा ने कहा कि यही वह है जिसके बारे में तुम लोगों ने मेरी मलामत की है और मैंने इसे खींचना चाहा था कि ये बचकर निकल गया और जब मेरी बात नहीं मानी तो अब कै़द किया जायेगा और ज़लील (बेइज़्ज़त) भी होगा |
12 | 33 | यूसुफ़ ने कहा कि परवरदिगार ये क़ैद मुझे इस (बुरे) काम से ज़्यादा महबूब है जिसकी तरफ़ ये लोग दावत दे रही हैं और अगर तू इनके मकर (झूठ, बुराई) को मेरी तरफ़ से मोड़ ना देगा तो मैं इनकी तरफ़ मायल (फिदा) हो सकता हूँ और मेरा शुमार भी जाहिलों में हो सकता है |
12 | 34 | तो इनके परवरदिगार ने इनकी बात कु़़बूल कर ली और इन औरतों के मक्र को फेर दिया कि वह सबकी सुनने वाला और सबका जानने वाला है |
12 | 35 | इसके बाद इन लोगों को तमाम निशानियाँ देखने के बाद भी ये ख़्याल आ गया कि कुछ मुद्दत के लिए यूसुफ़ को क़ैदी बना दें |
12 | 36 | और क़ैदख़ाने में इनके साथ दो जवान और दाखि़ल हुए एक ने कहा के मैंने ख़्वाब (सपना) में अपने को शराब निचोड़ते देखा है और दूसरे ने कहा कि मैंने देखा है कि मैं अपने सिर पर रोटियाँ लादे हूँ और परिन्दे इसमें से खा रहे हैं। ज़रा इसकी तावील (मतलब) तो बताओ कि हमारी नज़र में तुम नेक किरदार मालूम होते हो |
12 | 37 | यूसुफ़ ने कहा कि जो खाना तुमको दिया जाता है वह न आने पायेगा और मैं तुम्हें (उससे पहले ही) ताबीर बता दूँगा। ये ताबीर मुझे मेरे परवरदिगार ने बताई है और मैंने इस क़ौम के रास्ते को छोड़ दिया है जिसका ईमान अल्लाह पर नहीं है और वह रोज़े आखि़रत का भी इन्कार करने वाली है |
12 | 38 | मैं अपने बाप दादा इब्राहीम, इसहाक़ और याकू़ब के तरीक़े का पैरो हूँ। मेरे लिए मुमकिन नहीं है कि मैं किसी चीज़ को भी ख़ु़दा का शरीक बनाऊँ। ये तो मेरे ऊपर और तमाम ईन्सानों पर ख़ु़दा का फ़ज़्ल व करम है लेकिन इन्सानों की अकसरियत (ज़्यादातर लोग) शुक्रे ख़ु़दा नहीं करती है |
12 | 39 | मेरे क़ैदख़ाने के साथियों! ज़रा ये बताओ कि मुताफ़रिक़ कि़स्म (अलग-अलग तरह) के ख़ु़दा बेहतर होते हैं या एक ख़ु़दाए वाहिद (अकेला, यकता) व क़हार |
12 | 40 | तुम उस ख़ु़दा को छोड़कर सिर्फ़ उन नामों की परस्तिश (पूजा) करते हो जिन्हंे तुमने ख़ुद रख लिया है या तुम्हारे आॅबा व अज्दाद (बाप-दादाओं) ने। अल्लाह ने इनके बारे में कोई दलील नाजि़ल नहीं की है जबकि हुक्म करने का हक़ सिर्फ़ ख़ु़दा को है और उसी ने हुक्म दिया है कि उसके अलावा किसी की इबादत न की जाये कि यही मुस्तहकम (मज़बूत) और सीधा दीन है लेकिन अकसर लोग इस बात को नहीं जानते हैं |
12 | 41 | मेरे क़ैदख़ाने के साथियों तुम में से एक अपने मालिक को शराब पिलायेगा और दूसरा सूली पर लटका दिया जायेगा और परिन्दे उसके सिर से नोच-नोच कर खायेंगे ये इस बात के बारे में फ़ैसला हो चुका है जिसके बारे में तुम सवाल कर रहे हो |
12 | 42 | और फिर जिसके बारे में ख़्याल था कि वह निजात पाने वाला है उससे कहा कि ज़रा अपने मालिक से मेरा भी जि़क्र कर देना लेकिन शैतान ने उसे मालिक से जि़क्र करने को भुला दिया और यूसुफ़ चन्द साल तक क़ैदख़ाने ही मंे पड़े रहे |
12 | 43 | और फिर एक दिन बादशाह ने लोगों से कहा कि मैंने ख़्वाब (सपना) में सात मोटी गाय देखी हैं जिन्हें सात पतली गाय खाये जा रही हैं और सात हरी ताज़ी बालियाँ देखी हैं और सात ख़ु़श्क (सूखी) बालियाँ देखी हैं तुम सब मेरे ख़्वाब के बारे में राय दो अगर तुम्हें ख़्वाब (सपना) की ताबीर (मतलब) देना आता हो तो |
12 | 44 | इन लोगों ने कहा कि ये तो एक ख़्वाबे परेशान (परेशानी वाला सपना) है और हम ऐसे ख़्वाबों (सपनों) की तावील से बा-ख़बर नहीं हैं |
12 | 45 | और फिर दोनों क़ैदियों में से जो बच गया था और जिसे एक मुद्दत के बाद यूसुफ़ का पैग़ाम याद आया उसने कहा कि मैं तुम्हें इसकी ताबीर से बा-ख़बर करता हूँ लेकिन ज़रा मुझे (क़ैदख़ने तक) भेज तो दो |
12 | 46 | (वह गया और यूसुफ़ से कहा) यूसुफ़ ऐ मर्दे सिद्दीक़! ज़रा इन सात मोटी गायों के बारे में जिन्हें सात दुबली गायें खा रही हैं और सात हरी बालियों और सात ख़ु़श्क (सूखी) बालियों के बारे में अपनी राय तो बताओ शायद मैं लोगों के पास बा-ख़बर वापस जाऊँ तो शायद उन्हें भी इल्म हो जाये |
12 | 47 | यूसुफ़ ने कहा कि तुम लोग सात बरस तक मुसलसल (लगातार) ज़राअत (खेती) करोगे तो जो ग़ल्ला (अनाज) पैदा हो उसे बालियों समेत रख देना अलावा थोड़ी मिक़दार (मात्रा) के कि जो तुम्हारे खाने के काम में आये |
12 | 48 | इसके बाद सात सख़्त साल आयेंगे जो तुम्हारे सारे ज़ख़ीरे (जमा किये हुए अनाज) को खा जायेंगे अलावा उस थोड़े माल के जो तुमने बचाकर रखा है |
12 | 49 | इसके बाद एक साल आयेगा जिसमें लोगों की फ़रियाद रसी और बारिश होगी और लोग ख़ूब अंगूर निचोड़ेंगे |
12 | 50 | तो बादशाह ने ये सुनकर कहा कि ज़रा इसे यहाँ तो ले आओ पस जब नुमाईन्दा आया तो यूसुफ़ ने कहा कि अपने मालिक के पास पलट कर जाओ और पूछो कि उन औरतों के बारे में क्या ख़्याल है जिन्होंने अपने हाथ काट डाले थे कि मेरा परवरदिगार उनके मकर से ख़ूब बाख़बर (जानता) है |
12 | 51 | बादशाह ने उन औरतों से दरयाफ़्त (मालूम) किया कि आखि़र तुम्हारा क्या मामला था जब तुमने यूसुफ़ से इज़्ाहारे (दिली मुहब्बत) ताल्लुक़ किया था उन लोगों ने कहा कि माशा अल्लाह हमने हर्गिज़ (बिल्कुल) इनमें कोई बुराई नहीं देखी। तो अज़ीजे़ मिस्र की बीवी ने कहा कि अब हक़ बिल्कुल वाजे़ह हो गया है कि मैंने ख़ुद इन्हें अपनी तरफ़ मायल करने की कोशिश की थी और वह सादेक़ीन (सच्चों) में से है |
12 | 52 | यूसुफ़ ने कहा कि ये सारी बात इसलिए है कि बादशाह को ये मालूम हो जाये कि मैंने उसकी अदम मौजूदगी (पीठ पीछे) में कोई ख़यानत (चोरी) नहीं की है और ख़ु़दा ख़यानतकारों (चोरों) के मक्र (फ़रेब) को कामयाब नहीं होने देता |
12 | 53 | और मैं अपने नफ़्स को भी बरी (अलग) नहीं क़रार देता कि नफ़्स बहरहाल (आखि़रकार) बुराईयों का हुक्म देने वाला है मगर ये कि मेरा परवरदिगार रहम करे कि वह बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है |
12 | 54 | और बादशाह ने कहा कि इन्हें ले आओ मैं अपने ज़ाती (अपने ख़ुद के) उमूर (कामों) में साथ रखूँगा इसके बाद जब इनसे बात की तो कहा कि तुम आज से हमारे दरबार में बा-वक़ार (इज़्ज़त वाले) अमीन (अमानत की हिफ़ाज़त करने वाले) की हैसियत से रहोगे |
12 | 55 | यूसुफ़ ने कहा कि मुझे ज़मीन के ख़ज़ानों पर मुक़र्रर कर दो कि मैं मुहाफि़ज़ (हिफ़ाज़त करने वाला) भी हूँ और साहेबे इल्म (इल्म वाला) भी |
12 | 56 | और इस तरह हमने यूसुफ़ को ज़मीन में इखि़्तयार दे दिया कि वह जहाँ चाहे रहें। हम अपनी रहमत से जिसको भी चाहते हैं मर्तबा दे देते हैं और किसी नेक किरदार के अज्र को ज़ाया (बर्बाद) नहीं करते |
12 | 57 | और आखि़रत का अज्र (सिला) तो उन लोगों के लिए बेहतरीन है जो साहेबाने ईमान हैं और ख़ु़दा से डरने वाले हैं |
12 | 58 | और जब यूसुफ़ के भाई मिस्र आये और यूसुफ़ के पास पहुँचे तो उन्होंने सबको पहचान लिया और वह लोग नहीं पहचान सके |
12 | 59 | फिर जब उनका सामान तैयार कर दिया तो उनसे कहा कि तुम्हारा एक भाई और भी है उसे भी ले आओ क्या तुम नहीं देखते हो कि मैं सामान की नाप तौल भी बराबर रखता हूँ और मेहमान नवाज़ी भी करने वाला हूँ |
12 | 60 | अब अगर उसे न ले आये तो आईन्दा (आने वाले वक़्त में) तुम्हें भी ग़ल्ला (अनाज) न दूँगा और न मेरे पास आने पाओगे |
12 | 61 | उन लोगों ने कहा कि हम उसके बाप से बातचीत करेंगे और ज़रूर करेंगे |
12 | 62 | और यूसुफ़ ने अपने जवानों से कहा कि इनकी पूँजी (माल) भी इनके सामान में रख दो शायद जब घर पलट कर जायें तो पहचान लें और इस तरह शायद दोबारा पलट कर ज़रूर आयें |
12 | 63 | अब जो पलट कर बाप की खि़दमत में आये और कहा कि बाबाजान आईन्दा (आने वाले वक़्त में) हमें ग़ल्ले (अनाज) से रोक दिया गया है लेहाज़ा हमारे साथ हमारे भाई को भेज दीजिए ताकि हम ग़ल्ला हासिल कर लें और अब हम उसकी हिफ़ाज़त के जि़म्मेदार हैं |
12 | 64 | याकू़ब ने कहा कि हम उसके बारे में तुम्हारे ऊपर इसी तरह भरोसा करें जिस तरह पहले उसके भाई यूसुफ़ के बारे में किया था। ख़ैर ख़ु़दा बेहतरीन हिफ़ाज़त करने वाला है और वही सबसे ज़्यादा रहम करने वाला है |
12 | 65 | फिर जब इन लोगों ने अपना सामान खोला तो देखा कि उनकी बज़ाअत (क़ीमत) वापस कर दी गई है तो कहने लगा बाबा जान अब हम क्या चाहते हैं ये हमारी पूँजी भी वापस कर दी गई है अब हम अपने घर वालों के लिए ग़ल्ला (अनाज) ज़रूर लायेंगे और अपने भाई की हिफ़ाज़त भी करेंगे और एक ऊँट का बार (बोझ) और बढ़वा लेंगे कि ये बात उसकी मौजूदगी में आसान है |
12 | 66 | याकू़ब ने कहा मैं उसे हर्गिज़ तुम्हारे साथ न भेजूँगा जब तक कि ख़ु़दा की तरफ़ से अहद (वादा) न करोगे कि उसे वापस ज़रूर लाओगे मगर ये कि तुम्हीं को घेर लिया जाये। इसके बाद जब इन लोगों ने अहद (वादा) कर लिया तो याकू़ब ने कहा कि अल्लाह हम लोगांे के क़ौल (बातों) व क़रार (वादे) का निगरान (निगरानी करने वाला) और ज़ामिन (ज़मानत देने वाला) है |
12 | 67 | और फिर कहा कि मेरे फ़रज़न्दों देखो सब एक दरवाजे़ से दाखि़ल न होना और मुत्फ़रिक़ (अलग-अलग) दरवाज़ों से दाखि़ल होना कि मैं ख़ु़दा की तरफ़ से आने वाली बलाओं में तुम्हारे काम नहीं आ सकता हुक्म सिर्फ़ अल्लाह के हाथ में है और उसी पर मेरा एतमाद (भरोसा) है और उसी पर सारे तवक्कुल (भरोसा) करने वालों को भरोसा करना चाहिए |
12 | 68 | और जब वह लोग इसी तरह दाखि़ल हुए जिस तरह उनके वालिद ने कहा था अगरचे वह ख़ु़दाई बला (मुसीबत) को टाल नहीं सकते थे लेकिन ये एक ख़्वाहिश (चाह) थी जो याकू़ब के दिल में पैदा हुई जिसे उन्होंने पूरा कर लिया और वह हमारे दिये हुए इल्म की बिना पर साहेबे इल्म भी थे अगरचे अकसर लोग इस हक़ीक़त से भी नावाकि़फ़ हैं |
12 | 69 | और जब वह लोग यूसुफ़ के सामने हाजि़र हुए तो उन्होंने अपने भाई को अपने पास पनाह दी और कहा कि मैं तुम्हारा भाई ’’यूसुफ़’’ हूँ लेहाज़ा जो बरताव ये लोग करते रहे हैं अब उसकी तरफ़ से रंज (ग़म) न करना |
12 | 70 | इसके बाद जब यूसुफ़ ने इनका सामान तैयार करा दिया तो प्याले को अपने भाई के सामान में रखवा दिया इसके बाद मुनादी (आवाज़ देने वाले) ने आवाज़ दी कि क़ाफि़ले वालों तुम सब चोर हो |
12 | 71 | इन लोगों ने मुड़कर देखा और कहा कि आखि़र तुम्हारी क्या चीज़ गुम (खो जाना) हो गई है |
12 | 72 | मुलाज़मीन (खि़दमत करने वालों) ने कहा कि बादशाह का प्याला नहीं मिल रहा है और जो इसे लेकर आयेगा उसे एक ऊँट का बार (बोझ) ग़ल्ला ईनाम मिलेगा और मैं इसका जि़म्मेदार हूँ |
12 | 73 | इन लोगांे ने कहा कि ख़ु़दा की क़सम तुम्हें तो मालूम है कि हम ज़मीन में फ़साद (झगड़ा) करने के लिए नहीं आये हैं और न हम चोर हैं |
12 | 74 | मुलाजि़मों (खि़दमत करने वालों) ने कहा कि अगर तुम झूठे साबित हुए तो इसकी सज़ा क्या है |
12 | 75 | उन लोगों ने कहा कि इसकी सज़ा ख़ुद वह शख़्स है जिसके सामान में से प्याला बरामद हो हम इसी तरह ज़्ाुल्म करने वालों को सज़ा देते हैं |
12 | 76 | इसके बाद भाई के सामान से पहले दूसरे भाईयों के सामान की तलाशी ली और आखि़र में भाई के सामान में से प्याला निकाल लिया, और इस तरह हमने यूसुफ़ के हक़ में तदबीर की कि वह बादशाह के क़ानून से अपने भाई को नहीं ले सकते थे मगर ये कि ख़ु़दा ख़ुद चाहे हम जिसको चाहते हैं उसके दर्जात (मर्तबे) को बुलन्द (ऊंचा) कर देते हैं और हर साहेबे इल्म से बर तर एक साहेबे इल्म होता है |
12 | 77 | उन लोगों ने कहा कि अगर इसने चोरी की है तो क्या ताज्जुब है इसका भाई इससे पहले चोरी कर चुका है। यूसुफ़ ने इस बात को अपने दिल में छिपा लिया और इन पर इज़्हार (ज़ाहिर) नहीं किया-कहा कि तुम बड़े बुरे लोग हो और अल्लाह तुम्हारे बयानात (बातों) के बारे में ज़्यादा बेहतर जानने वाला है |
12 | 78 | इन लोगांे ने कहा कि ऐ अज़ीजे़ मिस्र इसके वालिद बहुत ज़ईफ़ (बूढ़े) अल उम्र हैं लेहाज़ा (इसलिये) हम में से किसी एक को इसकी जगह पर ले लीजिए और इसे छोड़ दीजिए कि हम आपको एहसान करने वाला समझते हैं |
12 | 79 | यूसुफ़ ने कहा कि ख़ु़दा की पनाह कि हम जिसके पास अपना सामान पायंे उसके अलावा किसी दूसरे को गिरफ़्त (पकड़) मंे ले लें और इस तरह ज़ालिम (ज़ुल्म करने वाले) हो जायें |
12 | 80 | अब जब वह लोग यूसुफ़ की तरफ़ से मायूस हो गये तो अलग जाकर मशविरा करने लगे तो सब से बड़े ने कहा कि क्या तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे बाप ने तुमसे ख़ु़दाई अहद लिया है और इससे पहले भी तुम यूसुफ़ के बारे में कोताही (लापरवाही) कर चुके हो तो अब मैं तो इस सरज़मीन को न छोड़ँूगा यहाँ तक कि वालिद मोहतरम इजाज़त दे दें या ख़ु़दा मेरे हक़ में कोई फ़ैसला कर दे कि वह बेहतरीन फ़ैसला करने वाला है |
12 | 81 | हाँ तुम लोग बाप की खि़दमत में जाओ और अजऱ् करो कि आपके फ़रज़न्द (बेटे) ने चोरी की है और हम उसी बात की गवाही दे रहे हैं जिसका हमें इल्म है और हम ग़ैब (छुपा हुआ) की हिफ़ाज़त करने वाले नहीं हैं |
12 | 82 | आप उस बस्ती से दरयाफ़्त (मालूम) कर लें जिसमें हम थे और उस क़ाफि़ले से पूछ लें जिसमंे हम आये हैं और हम बिल्कुल सच्चे हैं |
12 | 83 | याकू़ब ने कहा कि ये तुम्हारे दिल ने एक नई बात गढ़ ली है मैं फिर भी सब्रे जमील इखि़्तयार करूँगा कि शायद ख़ु़दा इन सबको (सारे लड़कों को) ले आये कि वह हर शै का जानने वाला और साहेबे हिकमत है |
12 | 84 | ये कहकर उन्होंने सबसे मुँह फेर लिया और कहा कि अफ़सोस है यूसुफ़ के हाल पर और इतना रोए कि आँखे सफ़ेद हो गई और ग़म के घूँट पीते रहे |
12 | 85 | इन लोगों ने कहा कि आप इसी तरह यूसुफ़ को याद करते रहेंगे यहाँ तक कि बीमार हो जायेंगे या हलाक होने वालांे में शामिल हो जायेंगे |
12 | 86 | याकू़ब ने कहा कि मैं अपने हुज़्न (अफ़सोस) व ग़म और अपनी बेक़रारी की फ़रियाद अल्लाह की बारगाह (दरबार) में कर रहा हूँ और उसकी तरफ़ से वह सब जानता हूँ जो तुम नहीं जानते हो |
12 | 87 | मेरे फ़रज़न्द जाओ यूसुफ़ और उनके भाई को ख़ूब तलाश करो और रहमते ख़ु़दा से मायूस (निराश) न होना कि उसकी रहमत से काफि़र क़ौम के अलावा कोई मायूस (निराश) नहीं होता है |
12 | 88 | अब जो वह लोग दोबारा यूसुफ़ के पास गये तो कहने लगे कि ऐ अज़ीज़ हमको और हमारे घर वालों को बड़ी तकलीफ़ है और हम एक हक़ीरी (हक़ीर, छोटी सी) पूँजी (माल) लेकर आये हैं आप हमें पूरा-पूरा ग़ल्ला (अनाज) दे दें और हम पर एहसान करें कि ख़ु़दा कारे ख़ैर (नेक काम) करने वालों को जज़ाए ख़ैर (नेकी का बदला) देता है |
12 | 89 | उसने कहा कि तुम्हें मालूम है कि तुमने यूसुफ़ और उनके भाई के साथ क्या बरताव किया है जबकि तुम बिल्कुल जाहिल थे |
12 | 90 | इन लोगों ने कहा कि क्या आप ही यूसुफ़ हैं? उन्होंने कहा कि बेशक मैं यूसुफ़ हूँ और ये मेरा भाई है। अल्लाह ने हमारे ऊपर एहसान किया है और जो कोई भी तक़्वा (परहेज़गारी) और सब्र इखि़्तयार करता है अल्लाह नेक अमल करने वालों के अज्र को ज़ाया (बर्बाद) नहीं करता है |
12 | 91 | इन लोगों ने कहा कि ख़ु़दा की क़सम ख़ु़दा ने आपको फ़ज़ीलत (बरतरी) और इम्तियाज़ (फ़कऱ्) अता किया है और हम सब ख़ताकार (ग़लती करने वाले) थे |
12 | 92 | यूसुफ़ ने कहा कि आज तुम्हारे ऊपर कोई इल्ज़ाम नहीं है। ख़ु़दा तुम्हें माॅफ़ कर देगा कि वह बड़ा रहम करने वाला है |
12 | 93 | जाओ मेरी क़मीज़ लेकर जाओ और बाबा के चेहरे पर डाल दो कि उनकी बसारत (रौशनी) पलट आयेगी और इस मर्तबा अपने तमाम घर वालों को साथ लेकर आना |
12 | 94 | अब जो क़ाफि़ला मिस्र से रवाना हुआ तो इनके पिदर (बाप) बुज़्ाुर्गवार ने कहा कि मैं यूसुफ़ की खु़शबू महसूस कर रहा हूँ अगर तुम लोग मुझे सठियाया हुआ न कहो |
12 | 95 | इन लोगों ने कहा कि ख़ु़दा की क़सम आप अभी तक अपनी पुरानी गुमराही में मुब्तिला हैं |
12 | 96 | इसके बाद जब बशीर ने आकर क़मीज़ को याकू़ब के चेहरे पर डाल दिया तो दोबारा साहेबे बसारत (आंख में रोशनी वाले) हो गये और उन्होंने कहा कि मैंने तुमसे न कहा था कि मैं ख़ु़दा की तरफ़ से वह जानता हूँ जो तुम नहीं जानते हो |
12 | 97 | इन लोगों ने कहा बाबा जान अब आप हमारे गुनाहों के लिए अस्तग़फ़ार (माफ़ी की दुआ) करें हम यक़ीनन ख़ताकार (ग़लती करने वाले) थे |
12 | 98 | उन्होंने कहा कि मैं अनक़रीब (जल्द ही) तुम्हारे हक़ में अस्तग़फ़ार (माफ़ी की दुआ) करूँगा कि मेरा परवरदिगार बहुत बख़्शने (माफ़ करने) वाला और मेहरबान है |
12 | 99 | इसके बाद जब वह लोग सब यूसुफ़ के यहाँ हाजि़र हुए तो उन्होंने माँ-बाप को अपने पहलू में जगह दी और कहा कि आप लोग मिस्र में इन्शा अल्लाह बड़े इत्मिनान व सुकून के साथ दाखि़ल हों |
12 | 100 | और उन्होंने वाल्दैन (माॅं-बाप) को बुलन्द मुक़ाम (ऊँची जगह) पर तख़्त पर जगह दी और सब लोग यूसुफ़ के सामने सज्दे में गिर पड़े यूसुफ़ ने कहा कि बाबा ये मेरे पहले ख़्वाब (सपनों) की ताबीर (मतलब) है जिसे मेरे परवरदिगार ने सच कर दिखाया है और उसने मेरे साथ एहसान किया है कि मुझे क़ैदख़ाने से निकाल लिया और आप लोगों को गाँव से निकाल कर मिस्र में ले आया जबकि शैतान मेरे और मेरे भाईयों के दरम्यान (बीच में) फ़साद (लड़ाई-झगड़ा) पैदा कर चुका था। बेशक मेरा परवरदिगार अपने इरादों की बेहतरीन तदबीर (इन्तज़ाम) करने वाला और साहेबे इल्म (इल्म वाला) और साहेबे हिकमत (हिकमत वाला) है |
12 | 101 | परवरदिगार तूने मुझे मुल्क (हुकूमत, इक़्तेदार) भी अता किया और ख़्वाबों (सपनों) की ताबीर (मतलब) का इल्म भी दिया। तू ज़मीन व आसमान का पैदा करने वाला है और दुनिया व आखि़रत में मेरा वली (मालिक) और सरपरस्त है मुझे दुनिया से फ़रमांबरदार (इताअत करने वाले की तरह) उठाना और सालेहीन (नेक लोगों) से मुल्हक़ (मिला देना) कर देना |
12 | 102 | पैग़म्बर ये सब गै़ब की ख़बरें हैं जिन्हें हम वही (हुक्मे ख़ुदा) के ज़रिये आप तक पहुँचा रहे हैं वरना आप तो उस वक़्त न थे जब वह लोग अपने काम पर इत्तेफ़ाक़ (एक राय) कर रहे थे और यूसुफ़ के बारे में बुरी तदबीरें (इन्तेज़ाम) कर रहे थे |
12 | 103 | और आप किसी क़द्र (जितना ज़्यादा) क्यों न चाहें, इन्सानों की अकसरियत (ज़्यादातर) ईमान लाने वाली नहीं है |
12 | 104 | और आप इनसे तब्लीग़े रिसालत (पैग़ाम-ए-इलाही को पहुचाकर तबलीग़ करने) की उजरत तो नहीं माँगते हैं ये कु़रआन तो आलमीन (सारे जहानों) के लिए एक जि़क्र और नसीहत है |
12 | 105 | और ज़मीन व आसमान में बहुत सी निशानियाँ हैं जिनसे लोग गुज़र जाते हैं (ग़ौर नहीं करते) और किनारा कश ही रहते हैं |
12 | 106 | और इनमें की अकसरियत (ज़्यादातर) ख़ु़दा पर ईमान भी लाती है तो शिर्क (ख़ुदाई में किसी को शरीक करने) के साथ |
12 | 107 | तो क्या ये लोग इस बात की तरफ़ से मुतमईन (इत्मीनान में) हो गये हैं कि कहीं इन पर अज़ाबे इलाही आकर छा जाये या अचानक क़यामत आ जाये और ये ग़ाफि़ल (भूले हुए, बेपरवाह) ही रह जायें |
12 | 108 | आप कह दीजिए कि यही मेरा रास्ता है कि मैं बसीरत (दूरअन्देशी) के साथ ख़ु़दा की तरफ़ दावत देता हूँ और मेरे साथ मेरा इत्तेबा (हुक्म पर चलना) करने वाला भी है और ख़ु़दा पाक व बेनियाज़ (जिसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है) है और मैं मुशरेकीन (ख़ुदाई में किसी को शरीक करने वालों) में से नहीं हूँ |
12 | 109 | और हमने आपसे पहले इन्हीं मर्दों को रसूल बनाया है जो आबादियों में रहने वाले थे और हमने इनकी तरफ़ वही (हुक्म-ए-अल्लाह) भी की है तो क्या ये लोग ज़मीन में सैर नहीं करते कि देखें कि इनसे पहले वालों का अंजाम क्या हुआ है और दारे आखि़रत (आखि़रत की दुनिया) सिर्फ़ साहेबाने तक़्वा (नेक) के लिए बेहतरीन मंजि़ल है। क्या तुम लोग अक़्ल से काम नहीं लेते हो |
12 | 110 | यहाँ तक कि जब इनके इन्कार से मुरसलीन (रसूल) मायूस होने लगे और इन लोगों ने समझ लिया कि इनसे झूठा वादा किया गया है तो हमारी मदद मुरसलीन (रसूलों) के पास आ गई और हमने जिन लोगों को चाहा उन्हें निजात दे दी और हमारा अज़ाब मुजरिम क़ौम से पलटाया नहीं जा सकता है |
12 | 111 | यक़ीनन इनके वाके़आत में साहेबाने अक़्ल के लिए सामाने इबरत (सबक़) है और ये कोई ऐसी बात नहीं है जिसे गढ़ लिया जाये ये कु़रआन पहले की तमाम किताबांे की तस्दीक़ (सच्चाई की गवाही) करने वाला है और इसमें हर शै की तफ़सील (वज़ाहत) है और ये साहेबाने ईमान क़ौम के लिए हिदायत और रहमत भी है |
Thursday, 16 April 2015
Sura-a-Yusuf 12th sura of Quran Urdu Translation of Quran in Hindi (Allama zeeshan haider Jawadi sb.),
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